Friday, 2 February 2018

धुंध

धुंध छायी है ये कैसी धुंध
जहाँ तक आँखों का घेरा है,
चहुँ ओर नज़र आती है ये धुंध।
सफ़ेद,घने कोहरे का एहसास कराती,
दूर-दूर तक छायी है ये कैसी धुंध है।
हवा का वेग हुआ आलसी,
सूरज ने भी पहना चश्मा है।
साँसों की भी साँसें घुट गयी,
प्रकृति का ये कैसा क्रोध बरपा है।
शरीर की फिजिक्स सब उल्टी -पुल्टी ,
केमिस्ट्री की वाट लगाई है।
ऑक्सीजन इन और कार्बन डाइऑक्साइड आउट की जगह अब तो,
कार्बन डाइऑक्साइड इन कार्बन डाइऑक्साइड आउट की पूरी तैयारी है।
रोज की दस-पंद्रह सुलगाने वालों का भी,
इसमें हाथ है,
अब देखो इनको आँखों पर चश्मा,
मुँह पर चढ़ा मास्क है।
परत-दर-परत प्रदूषण के आगोश में,
मेरा देश बढ़ा जाता है,
ज़रा सोचो, समझो, परखो, चेतो और देखो,
कौन, किसका और क्या बिगड़ जाता है।
ऊपर अम्बर नीचे नीर,
बीच में धुंधली होती माटी है,
परिणाम स्वरुप मिली धुंध की सौगात,
वही तो हमने मिल बांटी है।
प्रदूषण बढ़ा तो रुका विकास ,
नहीं रुका तो हांफती है सांस,
अज्ञानता का तमस हटाओ, सजगता की रौशनी से करो जगमग,
बस यही आस है।
सोच लो विकास की सांस,
सोच और सत्ता सब तुम्हारी है,
कर लो इसे नियंत्रण में,
जागने और जगाने की बारी तुम्हारी है।
चलो लौट चलें फिर प्रकृति की ओर,
मन के घोड़ों को थोड़ी लगाम तो दो,
जंगलों को कर दो फिर से हरा भरा,
निरीह जानवरों को थोड़ा आराम तो दो।
हाँफती, थकती, सिसकती, कुलबुलाती,
गंगा को फिर से नव जीवन दो,
शुद्ध करो चित्त को पहले,
शांत करो अपने-अपने अन्तरः मन के द्वन्द को।


 

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