रे इंसान क्या किया, क्या सोचा, क्या पायेगा?
आगे बढ़ने की चाह में जो गड्ढा खोदा है, क्या उसे पाट पायेगा?
भूल कर अपनी जड़ों को मंगल,चन्द्रमा तक क्या जा पायेगा?
इंसान बन कर आया धरती पर, क्या इंसानियत का दर्पण भी देख पायेगा?
क्यों किया, क्या सोचा, क्या पायेगा?
खुद का तो विकास कर लिया,
बदले में प्रकृति को जार-जार किया
गंगा की धरा को रोक बांध बना डाले,
तालाबों को पाटआलिशान आशियानें सजा डाले
चमचमाती सड़कें बनी और कूड़े से पॉलीथीन से नदी-नाले लाद डालें
क्या किया, क्या सोचा और क्या पायेगा?
अब प्रकृति का बदला देख ,कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा है,
कोई नित नई पार्टी में करता मौज, तो कोई चार दिन से भूखा है।
प्रकृति ने सारे नियम बदल डाले, गर्मी में सर्दी, सर्दी में गर्मी पड़ी है ,
बारिश ने जो अपना कहर बरपाया है,पानी की गहरायी में गयी जमीं है।
पहाड़ से मैदान तक मचा हुआ है हाहाकार,
कहीं बाढ़ का प्रलयंकारी तांडव, कहीं दरकते पहाड़ चहुँ ओर मची हुई है चीख-पुकार।
केरल सदी की भयावह-भयानक प्रलयंकारी बाढ़ की गिरफ्त में है,
न देखी न सुनी ऐसी विभिषिका, अभी तो प्रकृति के हर्जाने की ये एक किश्त भर है।
जहाँ चारों ओर मिर्च-मसालों की सुगंध महकती थी,
आज वहां चीज़ों के,जानवरों के, इंसानों के अवशेषों की गंध है।
कहाँ गए वो मसालों के बागान,नारियल और केलों के लहलहाते खलियान,
कहाँ गए वो ओणम बनाते लोग और कहाँ गयी उनकी खिलखिलाती मुस्कान।
दक्षिण के पर्यटन का कश्मीर कहते थे जिसको ,वो केरल पानी की गहराई में कहीं डूब चूका है,
क्या पक्षी ,क्या जानवर, क्या इंसान, क्या सड़कें सब बाढ़ के प्रचंड प्रकोप का दंश झेल चुका है।
जो बचे ताउम्र वो क्या भूल पाएंगेवो मंजर जो खुली आँख से देख चुके है।
प्रकृति अपनी चेतावनी जारी कर चुकी है,अभी भी वक़्त है चेतने का।
पकड़ो फिरसे अपनी जड़ों को और रोक लो भावी पीड़ी को,मौत की चादर ओढ़ने को ।
जो गया वो फिरसे वापिस तो न आ पायेगा।,
यही वो पल है, मदद को हाथ बढ़ाएं कम से कम जीने का हौंसला तो आएगा।
ज़िन्दगी को पटरी पर लाने की चुनौती भारी है,
केरल से बहुत कुछ पाया अब लौटाने की बारी हमारी है।
बूँद-बूँद से घड़ा भी भर जाता है,तो आओ सब मिल -जुलकर ,थोड़े से ही सिकुड़े हुए केरल को फिरसे बड़ा करदें।
अपनों को खोने का,सपनों के टूटने का, आशियानों के उधड़ने का,जो दर्द है उसे लोगों के दिल से हवा करदें।
केरल अकेला नहीं है, पूरा भारत उसके साथ खड़ा है,
कोशिश है ये पहले से बेहतर बने केरल, मन इसी ज़िद परअडा है।
सलाम है उन लोगों को, जो मसीहा बन बीच मँझधारसे ज़िन्दगियों को बचा लाये,
अब यही दुआ है, तिनका-तिनका जोड़, फिरसे लोगों का आशियाना संवर जाए।
पहाड़ों पर बादल- फाड़ मचा है हाहाकार, दर-दर पल-पल खिसक रहे है पहाड़।
डूब रही है ज़िन्दगी, मसीहा बन रही नाव और पतवार।
क्रमशः।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
क्या घर, क्या सड़कें, क्या इंसान क्या जानवर सब बाद की गोद में है सवार,
सड़को पर गिरता मालवा, मीलों तक थमीं गाड़ियों की रफ़्तार।
TO BE CONTINUED...
आगे बढ़ने की चाह में जो गड्ढा खोदा है, क्या उसे पाट पायेगा?
भूल कर अपनी जड़ों को मंगल,चन्द्रमा तक क्या जा पायेगा?
इंसान बन कर आया धरती पर, क्या इंसानियत का दर्पण भी देख पायेगा?
क्यों किया, क्या सोचा, क्या पायेगा?
खुद का तो विकास कर लिया,
बदले में प्रकृति को जार-जार किया
गंगा की धरा को रोक बांध बना डाले,
तालाबों को पाटआलिशान आशियानें सजा डाले
चमचमाती सड़कें बनी और कूड़े से पॉलीथीन से नदी-नाले लाद डालें
क्या किया, क्या सोचा और क्या पायेगा?
अब प्रकृति का बदला देख ,कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा है,
कोई नित नई पार्टी में करता मौज, तो कोई चार दिन से भूखा है।
प्रकृति ने सारे नियम बदल डाले, गर्मी में सर्दी, सर्दी में गर्मी पड़ी है ,
बारिश ने जो अपना कहर बरपाया है,पानी की गहरायी में गयी जमीं है।
पहाड़ से मैदान तक मचा हुआ है हाहाकार,
कहीं बाढ़ का प्रलयंकारी तांडव, कहीं दरकते पहाड़ चहुँ ओर मची हुई है चीख-पुकार।
केरल सदी की भयावह-भयानक प्रलयंकारी बाढ़ की गिरफ्त में है,
न देखी न सुनी ऐसी विभिषिका, अभी तो प्रकृति के हर्जाने की ये एक किश्त भर है।
जहाँ चारों ओर मिर्च-मसालों की सुगंध महकती थी,
आज वहां चीज़ों के,जानवरों के, इंसानों के अवशेषों की गंध है।
कहाँ गए वो मसालों के बागान,नारियल और केलों के लहलहाते खलियान,
कहाँ गए वो ओणम बनाते लोग और कहाँ गयी उनकी खिलखिलाती मुस्कान।
दक्षिण के पर्यटन का कश्मीर कहते थे जिसको ,वो केरल पानी की गहराई में कहीं डूब चूका है,
क्या पक्षी ,क्या जानवर, क्या इंसान, क्या सड़कें सब बाढ़ के प्रचंड प्रकोप का दंश झेल चुका है।
जो बचे ताउम्र वो क्या भूल पाएंगेवो मंजर जो खुली आँख से देख चुके है।
प्रकृति अपनी चेतावनी जारी कर चुकी है,अभी भी वक़्त है चेतने का।
पकड़ो फिरसे अपनी जड़ों को और रोक लो भावी पीड़ी को,मौत की चादर ओढ़ने को ।
जो गया वो फिरसे वापिस तो न आ पायेगा।,
यही वो पल है, मदद को हाथ बढ़ाएं कम से कम जीने का हौंसला तो आएगा।
ज़िन्दगी को पटरी पर लाने की चुनौती भारी है,
केरल से बहुत कुछ पाया अब लौटाने की बारी हमारी है।
बूँद-बूँद से घड़ा भी भर जाता है,तो आओ सब मिल -जुलकर ,थोड़े से ही सिकुड़े हुए केरल को फिरसे बड़ा करदें।
अपनों को खोने का,सपनों के टूटने का, आशियानों के उधड़ने का,जो दर्द है उसे लोगों के दिल से हवा करदें।
केरल अकेला नहीं है, पूरा भारत उसके साथ खड़ा है,
कोशिश है ये पहले से बेहतर बने केरल, मन इसी ज़िद परअडा है।
सलाम है उन लोगों को, जो मसीहा बन बीच मँझधारसे ज़िन्दगियों को बचा लाये,
अब यही दुआ है, तिनका-तिनका जोड़, फिरसे लोगों का आशियाना संवर जाए।
पहाड़ों पर बादल- फाड़ मचा है हाहाकार, दर-दर पल-पल खिसक रहे है पहाड़।
डूब रही है ज़िन्दगी, मसीहा बन रही नाव और पतवार।
क्रमशः।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
क्या घर, क्या सड़कें, क्या इंसान क्या जानवर सब बाद की गोद में है सवार,
सड़को पर गिरता मालवा, मीलों तक थमीं गाड़ियों की रफ़्तार।
TO BE CONTINUED...