Sunday 1 September 2013

kaash

सुन रे पागल मन तू क्यों हे इतना चंचल
नव-नव रूपों को देखके, बदला है क्यों पल-पल
पूर्णिमा की दूधिया रात मैं जब उज्वल सा चाँद नज़र आए
काश की ऐसा हो की वो मेरी शर्ट का बटन बन जाए
काली अमावस रात को जब तारे टिमटिम टिमटिमाएँ
काश की ऐसा हो की वो मेरी साड़ी के झिलमिल सितारे बन जाए
सुप्रभात मैं जब उगता सूरज आसमन की चादर पर लालिमा फ़ैलाएँ
काश की ऐसा हो की वो मेरे माथे की बिंदिया बन सज जाए
सावन मैं जब मेघ घूमड़-घूमड़ अपना वेग बरसयाँ
काश की ऐसा हो जब हो ईश्वर से साक्षात्कार, वो इन नैनो की अश्वधारा बन जायें

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