Sunday 15 December 2013

bachpan - my new poem

मासूमियत की रोशनी से सरोबार बचपन
राजनीति से परे निश्चल निशपाक बचपन
सम भाव लिए गंगाजल सा पवित्र साफ बचपन
पर अब कहाँ वो बेलगाम घोड़े सा सरपट दौड़ता बचपन
खुद के वजन से ज़्यादा बस्ते का  भार ढोता बचपन
प्रतिस्पार्दा की दौड़ मैं कहीं गुम हुआ बचपन
दूरदर्शी बनने की ब्जाय चश्मे से टिमटिमाता बचपन
मा-बाप के सपनो तले छुईमुई सा कुम्ल्हाता बचपन
बन धीर गंभीर खुद को खुद से गुमाता बचपन
ढाबे पर बर्तनो को घिसता बचपन
गली नुक्कड़ पर बेबस लाचार तरसता बचपन
लाल-बत्ती पर खेल खिलोनो को बेचता बचपन
कामकाजी माओं के घर छोटे बचपन को पालता,
सहेजता, प्यार को सिसकता मासूम बचपन......

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